Friday, February 1, 2019

भारत रंग महोत्सव के ये दमदार नाटक


दिल्ली में गुलाबी सर्दी पड़ रही है, लेकिन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का माहौल....कहीं स्क्रिप्ट याद की जा रही है तो कहीं पेड़ की छांव में कलाकारों की समूह अभिनय कर रहा है। पास ही स्ट्रीट फूड के स्टॉल भी लग रहे हैं। फोल्क आर्टिस्ट भी यहीं जमकर तैयारी कर रहे हैं। दरअसल आज से भारत रंग महोत्सव का शुभारंभ हो गया। 21 फरवरी तक चलने वाले इस महोत्सव में सौ से भी ज्यादा नाटकों का मंचन होगा। नाटक...जो शब्दों के जरिए दिल में उतर जाएंगे। जो कभी हंसाएंगे तो कभी रुलाएंगे। महोत्सव में दिल्ली के प्रोडक्शन समूह भी भाग ले रहे हैं जिनके छह से ज्यादा नाटकों का मंचन होगा। आइए आपको बताते हैं वो कौन से नाटक है-
दिल्ली में कुल 89 नाटकों का मंचन होगा। जिसमें 25 नाटक हिंदी में जबकि 16 बंगाली, 5 कन्नड़, 2 उड़िया, 2 गुजराती, 2 मणिपुरी, 3 अंग्रेजी, 2 असमिया, 2 मलयालम और 1-1 मैथिली-तेलगू-नेपाली और संस्कृत में आयोजित होंगे। 15 विदेशी नाटकों के अतिरिक्त दिल्ली में 8 लोक कलाओं की प्रस्तुतियां भी होंगी।


शीशे के खिलौने
कहानी बहुत ही साधारण लेकिन दिलचस्प है। नायक के दिल में कहीं कवि छिपा बैठा है। लिखने का खूब शौक है। लेकिन परिवार चलाने के लिए वो एक फैक्ट्री में काम करते हैं, उनके एक पैर में दिक्कत है। नायक अपनी मां नफीसा और बहन लुबना की सहायता दिल से करना चाहता है। पारिवारिक दायित्वों को निभाने के दौरान नफीसा एक दिन अजीज से बहन लुबना के लिए अच्छा रिश्ता ढूूंढने को कहती हैं। अजीज एक दिन अमजद नाम के शख्स को घर ले आता है जो लुबना के साथ ही पढ़ाई करता है। लेकिन बातचीत के दौरान अमजद बताता है कि वो एक अन्य लड़की से मोहब्बत करता है। यह कहकर वो चला जाता है। इस बीच अजीज अपनी दिलीइच्छा जाहिर करते हुुए कहता है कि वो मर्चेंट नेवी ज्वाइन करना चाहता है। इसके बाद से ही मां बहुत ही मायूस हो जाती है एवं बेटे के प्रति मोहभंग हो जाता है। लुबना को शीशे के खिलौने रखने का बहुत शौक है, एक दिन उसके खिलौने अजमद तोड़ देता है। इस घटना के बाद अजीज तो घर छोड़कर चला जाता है लेकिन अंदर ही अंदर उसे घर की याद सालती रहती है। जब सालों बाद अजीज अपने घर लौटता है तो बहुत कुछ बदला नजर आता है। इसके बाद जानने के लिए आपको नाटक देखना होगा। नाटक में लुबना द्वारा उठाया गया यह सवाल दिल को छू लेता है कि जैसे लुबना अपने खिलौने की देखभाल करती है वैसे भगवान क्यों नहीं सभी की देखभाल करता है। भगवान क्यों हमें मुश्किल घड़ी में अकेला छोड़ देता है।
नाटक-शीशे के खिलौने
डायरेक्टर-गोविंद सिंह यादव
स्थल-एलटीजी आडिटोरियम।
समय-18 फरवरी, शाम 5 बजकर 30 मिनट।
प्रवेश- आनलाइन बुकिंग द्वारा।
नजदीकी मेट्रो-मंडी हाउस।
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कथा एक कंस की
कंस..इतिहास के प्रचलित महानायकों में से एक। महात्वाकांक्षी शासक ही नहीं असंवेदनशील मनुष्य भी। जब भी कंस का जिक्र होता है तो जेहन में क्रूर, खतरनाक, दैत्य का ही चेहरा सामने आता है। कंस जिसने अपनी बहन के बच्चों तक की हत्या कर दी। लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या कंस हमेशा से ही ऐसा था या परिस्थ्तियों ने उसे ऐसा बनाया। वह कौन  से कारण थे, जिनकी वजह से कंस अपनी ही बहन के बच्चों से नफरत करने लगा। ऐसा क्या हुआ कि कंस की भावनाएं मर गई और वह इतिहास का सबसे क्रूर शासक बन बैठा। दया प्रकाश सिन्हा के लिखे इस रिसर्च ड्रामा में कंस, राजा के रूप का बखान करते हुए एक बारगी यह भी कहेगा कि 'पुरुष वहीं है जो हत्या करे। रक्तपात में हर्षित हो। हिंसा की हुंकार में जीवन संगीत ढूंढे। निर्मम, क्रूर, बर्बर, अंधा, बहरा.ऐसा होता है पुरूष।' फ्लैश बैक में चले इस नाटक में कंस के बर्बर होने का कारण तलाशा गया है। कंस को बचपन में वीणा का शौक था पर उसे सख्त शासक बनाने के लिए उसके अभिभावक उसकी कला को दबा देते हैं। कंस का विवाह भी राजनैतिक लाभ के तहत होता है। वहीं, वह निरंकुश शासन के लिए अपने परिवारीजनों को भी कैद करवाता है। कुल मिलाकर नाटक कंस की जिंदगी के एक अन्य पक्ष को दर्शाता है जिसके बारे में बहुत कम ही दिखाया गया है।
नाटक-कथा एक कंस की
डायरेक्टर-दया शंकर प्रकाश सिंहा
स्थल-एलटीजी आडिटोरियम।
समय-2 फरवरी, शाम 5 बजकर 30 मिनट।
प्रवेश- आनलाइन बुकिंग द्वारा।
नजदीकी मेट्रो-मंडी हाउस।
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स्टे येट अ व्हाइल
यह नाटक दरअसल 20वीं सदी के दो महान शख्सियतों महात्मा गांधी और रविंद्र नाथ टैगोर के बीच बातचीत है। यह बातचीत ना केवल भारत के भविष्य का खांका खिचती है बल्कि मानवता के लिए भी उपयोगी। वार्तालाप की यह प्रक्रिया तीव्र भी है और दार्शनिक, आध्यात्मिक, सौंदया्रत्मक , एवं राजनीतिक भी। यह वार्तालाप खतों के जरिए हो रहा है। जिसमें कई मसलों पर एक दूसरे से सहमति और असहमित भी है। लेकिन पूरे वार्तालाप में कहीं भी गुस्सा, क्रोध या एक दूसरे के प्रति नाराजगी जाहिर नहीं होती। इन दोनों के बीच एक दूसरे के प्रति प्यार, सम्मान है। एक दूसरे के विचारों के प्रति सम्मान भी है। वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए यह नाटक आंख खोलने वाला है।  जो ना केवल जीने की एक नई राह दिखाता है बल्कि इन महान हस्तियों की खूबियों को बड़ी बारीकी से दर्शकों के सामने रखता है। नाटक का मंचन अंग्रेजी में होगा।
नाटक-स्टे येट अ व्हाइल
डायरेक्टर-एम के रैना
स्थल-कमानी आडिटोरियम।
समय-14 फरवरी, शाम 7 बजे।
प्रवेश- आनलाइन बुकिंग द्वारा।
नजदीकी मेट्रो-मंडी हाउस।
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शिफा.द हीलिंग नाटक
 त्रिपुरारी शर्मा के लिखे इस नाटक को टीकम जोशी ने डायरेक्ट किया है। तीन किरदार- छाया, बरखा और संजीव के इर्द-गिर्द बुनी गई। इसमें दिखाया कि तीनों एचआईवी पॉजिटिव हैं। हालांकि वह अपनी गलती से नहीं बल्कि दूसरों की गलती से इसका शिकार होते हैं। इस बीमारी से पीड़ित होने के बावजूद उनमें जीने की उम्मीद को दिखाया गया। यानि निराशा में भी आशा के भाव जगाते हुए यह संदेश देता है। टीकम जोशी कहते हैं नाटक प्रेरित करता है। पहला रवि नागर जबकि दूसरा इस तरह की बीमारियों से लड़ने की जद्दोजहद। यह नाटक लोगों के अंदर साहस का भाव जगाएगा। यह नाटक एक खिड़की की तरह है जो समाज के उन मुद्दों पर बहस करता है जिसपर बातचीत करने से लोग कतराते हैं।
नाटक-शिफा द हीलिंग 
डायरेक्टर-टीकम जोशी
स्थल-अभिमंच
समय-5 फरवरी, रात 8 बजे।
प्रवेश- आनलाइन बुकिंग द्वारा।
नजदीकी मेट्रो-मंडी हाउस।
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मारफोसिस नाटक
थियेटर जगत की दुनिया का चमकता सितारा है प्रसाद। जिसके सितारे बुलंद है। वह अपने आप को बेस्ट एक्टर मानता है। यह मानने में कोई बुराई नहीं है लेकिन प्रसाद अपने को-एक्टर की कद्र नहीं करता है। सहयोगियों संग बातचीत के दौरान उसका इगो झलकता है। अपने सेक्रेटरी मोहित से बातचीत के दौरान तो कई बार उसका लहजा ऐसा हो जाता है कि दर्शक भी नापसंद करेंगे। वहीं उसका एक जानने वाला भौमिक अपने संघर्ष के दिन काट रहा है। एक दिन भौमिक प्रसाद से मिलने आता है, बातचीत के दौरान तीखीनोंकझोंक होती है। इसी दौरान भौमिक, प्रसाद को नाटक मारफोसिस में अभिनय की चुनौती देता है। हालांकि नाटक के लीड रोल मानस के लिए प्रसाद उपयुक्त नहीं होता है फिर भी वह चुनौती स्वीकार कर लेता है। चुनौती स्वीकार करने के बाद वह निर्देशक से मिलता है । इसके बाद नाटक के लीड रोल की तैयारी के लिए जो अनुशासन, ईमानदारी, त्याग चाहिए जो प्रसाद पूरे समर्पण के साथ सीखता है लेकिन इन सबके बीच बहुत कुछ बदल जाता है। जिसे जानने के लिए आपको नाटक देखना होगा। बापी बोस कहते हैं कि नाटक की कहानी सत्य घटना से प्रेरित है।
नाटक-मारफोसिस
डायरेक्टर-बापी बोस
स्थल-कमानी आडिटोरियम
समय-9 फरवरी, रात 7 बजे।
प्रवेश- आनलाइन बुकिंग द्वारा।
नजदीकी मेट्रो-मंडी हाउस।
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धूर्तसमागम मैथिली
भारत रंग महोत्सव में पहली बार मैथिली नाटक का मंचन होगा। मैथिली के अधिकतर नाटक कृष्ण के इर्द गिर्द बुने गए हैं लेकिन धूर्त समागम के केंद्र बिंदू में एक गुरू एवं शिष्य है। इनका विवाह नहीं हुआ है। दोनो सूरतप्रिया नामक एक जगह जाते हैं जहां गुरु और शिष्य अनंगसेना नामक एक खूबसूरत वेश्या पर मोहित हो जाते हैं। वे दोनों कामवासना से वशीभूत हो कर उस वेश्या को पाने के लिए आपस में हीं झगड़ पड़ते हैं। तत्पश्चात दोनों को अनंगसेना के साथ समस्याओं के निबटारा हेतु मिथिला राज के न्यायाधीश अस्सजाति मिश्र के न्यायालय में जाते हैं लेकिन अस्सजाति मिश्र भी अनंगसेना की सुन्दरता पर मोहित हो जाते हैं। इसके बाद क्या होता है यह नाटक देखकर ही पता चलेगा। नाटक नाटक धर्म और कामान्धता तथा कुत्सित, व्यभिचारी और भ्रष्ट व्यवस्था का पोल खोलने में कामयाब होता है।
नाटक-धूर्त समागम
डायरेक्टर-प्रकाश झा
स्थल-एलटीजी आडिटोरियम
समय-17 फरवरी, शाम साढ़े पांच बजे।
प्रवेश- आनलाइन बुकिंग द्वारा।
नजदीकी मेट्रो-मंडी हाउस।
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आयोजन : भारत रंग महोत्सव
स्थल- कमानी, बहुमुख,श्रीराम सेंटर, एलटीजी, अभिमंच
समय-अलग अलगसमय।
प्रवेश- एनएसडी से भी टिकट मिलेगा एवं आनलाइन बुकिंग सेवा भी उपलब्ध।
नजदीकी मेट्रो-मंडी हाउस।

Thursday, January 24, 2019

सुभाष चंद्र बोस जिंदा थे, फिर क्यों गांधी जी ने उनकी मौत पर अफसोस जता दिया


29 मार्च सन 1942...न्यूयार्क टाइम्स में एक खबर छपी। खबर नेताजी सुभाष चंद्र बोस से संबंधित थी। इस खबर ने भारत में भूचाल ला दिया। खबर थी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के मौत की। अखबार ने हवाई दुर्घटना में नेताजी के मौत की खबर छापी थी। फिर क्या था, भारत में शोक की लहर दौड़ पड़ी। इतिहासकार कपिल कहते हैं कि न्यूयार्य टाइम्स ने फर्जी खबर छापी थी। उस समय नेताजी बर्लिन में थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी सरीखी कई प्रसिद्ध शख्सियतों ने अफसोस भी जाहिर कर दिया था। दरअसल, न्यूयार्य टाइम्स ने फ्रांस के एक रेडियो के हवाले से खबर चलाई। फ्रांस के रेडियो ने आस्ट्रेलिया के अखबार से खबर ली थी जबकि आस्ट्रेलियाई अखबार ने टोक्यो के एक रेडियो पर खबर प्रसारित होने का हवाला दिया था। इस तरह न्यूज ने हजारों मील का सफर तय कर लिया। नेताजी की जिंदगी से जुड़ी ये दिलचस्प कहानी आप लाल किला परिसर में बने बोस संग्रहालय में देख सकते हैं।



 यही नहीं प्रदर्शनी में सन 1941 में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा इंस्ताबुल में अपने जासूसों को भेजा गया पत्र भी प्रदर्शित हैं। जिसमें नेताजी का कत्ल करने का आदेश दिया गया था। बकौल कपिल नेताजी से ब्रिटिश क्यों इतना खौफ खाते थे यह प्रदर्शनी देखने से जाहिर होगा। नेताजी भारतीयों के ब्रिटिश फौज में भर्ती होने के हिमायती थे। इसके पीछे उनका मकसद था कि ऐन वक्त पर भारतीय हमारे लिए उठ खड़े होंगे और अंग्रेज कमजोर हो जाएंगे।
दो मंजिला संग्रहालय भवन में बोस की जिंदगी को तीन हिस्सों में दर्शकों के सामने रखने की कोशिश की गई है। मसलन, भूतल पर बोस के प्रारंभिक जीवन, राष्ट्रवाद के बारे में बताया गया है। इसी तल पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा उपयोग में लायी जाने वाली कुर्सी, तलवार और म्यान समेत आजाद हिंद फौज के जवानों के परिचय पत्र, रुपये और सिक्के भी देखे जा सकते हैं। एक राष्ट्रवादी का जन्म, विद्यालय के दिन, राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी संबंध समेत सन 1914 में कालेज के दिनों में गर्मी की छुट्टियों में एक मित्र के साथ चुपचाप घर से तीर्थ यात्रा के लिए निकलने का प्रसंग भी बकायदा चित्रों एवं स्केच के जरिए दर्शाया गया है। संग्रहालय की पहली मंजिल पर नेताजी के दो बार कांग्रेस अध्यक्ष बनने, कलकत्ता से बर्लिन की यात्रा, जर्मनी प्रवास, आजाद हिंद रेडियो, दक्षिण पूर्व एशिया समेत भारतीय परिदृश्य एवं आजाद हिंद फौज के बारे में विस्तृत जानकारी है। 1929 लाहौर कांग्रेस, 1930-31 सविनय अवज्ञा के वर्ष के दौरान की जानकारी भी देखी जा सकती है। द्वितीय तल पर आजाद हिंद सरकार, आजाद हिंद के गीत, यातनाएं और बोस खो गए शीर्षक से दस्तावेज प्रदर्शित हैं। लाल किले में मुकदमा संबंधी दस्तावेज भी यहां प्रदर्शित हैं। 5 नवंबर 1945 को मुकदमा शुरू हुआ था। यह आठ माह तक चला था। इतिहासकार कपिल कहते हैं कि मुकदमे से पहले 27 जवानों केा मारा गया था। सैकड़ों जवानों को ब्रितानिया हुकूमत का टार्चर सहना पड़ा था।

Monday, January 21, 2019

मंडी हाउस मेट्रो पर मदनपुर खादर की लड़कियों का आना-जाना

गड्ढे वाली सड़के। संकरी गलियां। बिजली के लटकते तारों संग सिविक समस्याओं संग झूलती जिंदगी। जो झांकती हैं बालकनी से कभी सब्जी वाले की आवाज सुनकर तो कभी फेरीवाले की चिल्लाहट सुनकर। बारिश में डूबी सड़के, गलियों में मुंह चिढ़ाती खड़ी स्ट्रीट लाइटें। मदनपुर खादर में सुविधाओं के अभाव में गुजरती जिंदगी में महिलाएं अपने आप को ढाल चुकी है। ये ना केवल इन गलियों की दहलीज लांघती है बल्कि अपने और अपने परिवार का पालन पोषण भी करती है। यहां रहने वाली महिलाओं को रोजमर्रा की जिंदगी में पेश आती मुश्किलों, अभावों समेत चंद खुशनुमा पलों को समेटने की ही कोशिश का नाम है आना-जाना। मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन परिसर में आना जाना की फोटो प्रदर्शनी लगी हुई है। ये फोटो मदनपुर खादर की महिलाओं द्वारा खींचकर, गैर सरकारी संगठन को प्रदान किए गए हैं। दरअसल, प्रदर्शनी यूके के आर्ट एंड हयूमिनिटी रिसर्च काउंसिल द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त है। जिसमें स्कूल आफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर एवं संगठन जागोरी भी शामिल है। प्रदर्शनी इन महिलाओं की रोजमर्रा की जिंदगी का आइना है जो सुबह बसों में धक्के खाती हुई शहर में दाखिल होती हैं और शाम में थकी हारी पहुंचती है।
संगठन ने छह महीने की अवधि में इन महिलाओं द्वारा बनाए गए सहभागिता मानचित्र, क्लिक की गई तस्वीरों, वीडियो एवं वाट्सएप पर किए गए मैसेज, डायरी का उपयोग किया गया है। इन सभी माध्यमों के बहाने महिलाओं की रोजमर्रा की जिंदगी एवं इलाके की वास्तविक स्थिति से रूबरू कराती है। प्रदर्शनी मुख्य रूप से पांच भागों में विभाजित है।


विषय
विषय शीर्षक के तहत सबसे पहले डेट संग्रह संबंधी प्रदर्शनी है। जिसमें बताया गया है कि किस तरह प्रतिभागियों एवं शोधकर्ताओं ने वाटसअप गु्रप बनाया। जिसमें यहां की महिलाओं को शामिल किया गया। ये महिलाएं प्रतिदिन अपडेट करती थी। फोटो, मैसेज और दैनिक डायरी लिखती थी। यही नहीं इन अपडेट के आधार पर संगठन विकिपीडिया एडिटर ए थॉन करवाया। इसमें महिलाओं के द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर मदनपुर खादर पर एक विकी लेख भी तैयार किया गया। इसी तरह सेल्फी वर्कशाप का भी आयोजन किया गया। जिसमें महिलाओं द्वारा ली गई सेल्फी की प्रकृति एवं उसके उद्देश्य पर भी चर्चा हुई। यही नहीं महिलाओं ने एक गाना भी तैयार किया जो उनके रोजमर्रा की जिंदगी के संघर्ष की कहानी बयां करता है।

आना-जाना क्यों?
प्रदर्शनी का नाम मेट्रो यात्रियों के बीच खासा चर्चा का विषय बना रहा। प्रदर्शनी से जुड़े पदाधिकारी बताते हैं कि आना-जाना दरअसल दिल्ली की प्रकृति का द्योतक है। स्वतंत्रता के बाद से ही दिल्ली में उद्योग धंधे, कारखाने की बढ़ोतरी हुई। लिहाजा, काम धंधे की तलाश में पड़ोसी राज्यों के गांवों से लाखों लोग दिल्ली आए। परिणामस्वरूप झोपड़पट्टी, बस्तियों की तादात में इजाफा हो गया। इसी तरह जाना की परिभाषा कुछ यूं समझी जा सकती है। जब बस्तियों की संख्या बढ़ी तो मदनपुर जैसी रिसेटलमेंट कालोनियों में लोगों को शिफ्ट किया गया। खादर में रहने वाले पं बंगाल, यूपी, बिहार, राजस्थान के निवासी है जो काम धंधे की तलाश में दिल्ली आए थे। वे मुख्य रूप से कम वेतन वाली नौकरियां मसलन चपरासी, ड्राइवर, घरेलू कामगार, सुरक्षा गार्ड, रैग पिकर, विक्रेता, औद्योगिक इलाकों में श्रमिक हैं।

होम-फोन और सिटी
स्मार्ट फोन ने घर घर दस्तक दे दी है। लोगों की जिंदगी जेब में रखे फोन ने बदल दी है। मदनपुर खादर में रहने वालों की जिंदगी पर भी इसका असर पड़ा है लेकिन अभी भी यहां नेटवर्क की समस्या बनी हुई है। इसे प्रदर्शनी में बड़े ही खूबसूरत ढंग से दर्शाया गया है। जबकि शहर शीर्षक के अंतर्गत यौन उत्पीडऩ के मसलों पर महिलाओं ने चुप्पी तोड़ी है। प्रदर्शनी में चित्रों, कैरिकेचर के जरिए यह बताया गया है कि महिलाएं इन खतरों से अलग अलग तरीकों से निपटती है। जैसे कभी पुलिस हेल्पलाइन पर कॉल करके तो कभी दोस्तों के साथ रहकर। कभी अकेले होने पर नजर अंदाज करना या मदद के लिए कॉल करने के बहाने मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना शामिल है। सेफ्टी पिन मोबाइल एप के जरिए सेफ्टी सर्वे का चित्र भी प्रदर्शनी में शामिल है। जहां सेफ और अनसेफ जगहें चिन्हित की गई है। इसमें एटीएम मार्केट, डी ब्लॉक, गर्वमेंट टॉयलेट, चौराहा पार्क, गर्वमेंट स्कूल एरिया जैसी कई अन्य जगहों को महिलाओं ने अनसेफ बताया है।

खादर की लड़कियां
खादर की लड़कियां तमाम असुविधाओं के बावजूद अपने सपनों को कैद नहीं रखती है। अपने हौसले की उड़ान को वो और उंचा करने में जुटी है। वो मेहनत से सफलता के पायदान चढ़ रही है। यह खादर की लड़कियां शीर्षक से भी जाहिर होता है। जिसमें लड़कियां अपनी भावनाओं का इजहार कविता से करती है। एक लड़की ने लिखा कि-
हम खादर की लड़कियां
शहर में रहती हैं दिन रात
हम खादर की लड़कियां
सुनो हमारी बात।।
वहीं एक लड़की ने लिखा है कि यह शहर सिर्फ चंद लोगों का नहीं है। यह शहर हमारी मेहनत से सींचा गया है। यह हम सब का शहर है। लिखती है-
मेरे साथ कहो एक बार
यह शहर हमारा आपका
नहीं किसी के बाप का।।
जबकि एक अन्य युवती ने बदहाल व्यवस्था पर चोट करती चंद पक्तियां लिखी।
नदी तो दूर, नाली भी नहीं
पहाड़ तो दूर, कूड़े के ढेर मिलेंगे
रास्तों में हो लाइट
ना हो कोई फाइट।।
लेकिन इन लड़कियों की हिम्मत देखने लायक है। इसका इजहार इनकी कविताओं से ही होता है। एक युवती लिखती है कि -
मैं हूं अलर्ट
मैं हूं होशियार
मेरी हिम्मत है बेमिसाल।।
जबकि एक लड़की ने अपनी व्यथा कुछ इस कदर बयां किया--
क्यों समाज ने मुझको दबाया है
बिना खुद को सुधारे
मुझे घर में बिठाया है।।

वाट्सएप डायरी
प्रदर्शनी में वाट्सएप डायरी उत्सुकता भरी है। दरअसल, वाटसएप पर महिलाओं द्वारा शेयर की गई बारिश संबंधी तस्वीरों को इस श्रेणी के तहत प्रदर्शित किया गया है। इसमें बारिश के बाद जलमग्न सड़कों को दर्शाया गया है। किस तरह लोगों को परेशानी होती है, बच्चे इनमें खेलते हैं। गाडिय़ां आधी डूब जाती है एवं नालियों का पानी कई जगह घरों में दाखिल होने लगता है।

आयोजन-आना-जाना
स्थल-मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन

Friday, January 18, 2019

दिल्ली में कारगिल का गुमनाम हीरो...एक मुलाकात

नीली आंखे, भोला मासूम चेहरा, उतनी ही भोली बातें...इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आइजीएनसीएन) में पहली बार दरद आर्यन पर केंद्रित आर्य उत्सव का आयोजन हो रहा है। लेह लद्दाख के 30 आर्यन इसमें भाग ले रहे हैं। इन्हीं आर्यन मे से एक हैं ताशी नामग्याल। सेना के जवानों की तरह इन्होंने दुश्मनों पर बम-गोले भले ही नहीं बरसाए लेकिन समय रहते सूचना देकर अपना फर्ज निभाया। उनकी यह उपलब्धि कारगिल में जंग लड़ने वाले सेना के जवानों के बराबर नहीं तो कम भी नहीं है। पर, कारगिल का यह हीरो अब भी पहचान को मोहताज है।
 

ताशी परिवार के साथ कारगिल के गरखोन गांव में रहते हैं। ताशी कहते हैं कि अप्रैल 1999 में एक दस हजार रुपये में यॉक खरीदा था।  2 मई को मेरे दिमाग में आया कि यॉक नया खरीदा है, कहीं दोबारा अपने पुराने मालिक के पास तो नहीं चला गया। इसलिए मैं उसे ढूंढने लगा। वहां एक गरखोन नाले के पास बरारु जगह हैं, वहां मैंने देखा कि यॉक के पहाड़ियों की तरफ जाने के निशान थे। मैंने दूरबीन से देखा तो यॉक नहीं दिखा लेकिन करीब पांच-छह लोग बर्फ हटाते नजर आए। मैंने सोचा कि गांव से पहाड़ी की तरफ जाने के पैरों के निशान नहीं हैं तो फिर आखिर वो कौन हैं?

सेना को बताया
गांव में ही पंजाब यूनिट तैनात थी। सेना को पूरा वाकया सुनाया। रिपोर्ट देते ही रात आठ बजे तक पंजाब बटालियन के कई जवान घर पर ही आ गए। सेना ने कहा कि यह सूचना पैरों के नीचे से जमीन खिसकाने वाली है। बकौल ताशी, उस रात खूब बर्फबारी हुई। मुझे ये डर था कि जिसे मैंने देखा है, उनके पैरों के निशान भी अब नहीं दिखेंगे। खैर, सुबह पांच बजे ही बटालियन के जवानों के साथ पेट्रोलिंग के लिए गए। 25 जवान मेरे साथ उसी स्थान पर गए जहां से मैंने दूरबीन के जरिए संदिग्धों को देखा था। सेना के जवानों ने जब देखा तो वो भी हैरान रह गए। कई लोग संदिग्ध गतिविधि करते दिखे। जवानों ने ताशी को गले लगा लिया कि तुमने देश को खतरे में पड़ने से बचा लिया। यदि कुछ दिन और विलंब हो जाता तो पूरा लद्दाख घुसपैठियों के कब्जे में आ जाता।

युद्ध के दौरान सेना के साथ
ताशी कहते हैं कि सेना को बर्फीले रास्तों पर लेकर जाता था। उस समय मैं गाइड के रूप में प्रसिद्ध था। यही नहीं युद्ध जब तक हुआ तब तक मैं ही नहीं पूरा गांव राशन बनाकर पहुंचाता था। ताशी अपने पीठ पर बने निशान की तरफ इशारा करते हुए बताते हैं कि यह निशान आज तक नहीं गए हैं। घर पर गर्मागर्म खाना बनाकर पीठ पर लादकर कई किलोमीटर का सफर तय कर सेना के जवानों तक पहुंचाता था। खाना गर्म होने, ठंड ज्यादा होने की वजह से चमड़े छील जाते थे। फफाेले पड़ जाते थे। सात दिनों तक हमलोगों ने राशन पानी पहुंचाया। बाद में सेना के जवान आए थे। एक वाकया और ताशी बताते हैं कि युद्ध  समाप्त होने पर तीन महीने बाद अचानक एक दिन मेरा यॉक वापस आ गया। उसे खरोंच तक नहीं आयी थी जबकि घुसपैठिए दस से पन्द्रह यॉक को भी मारकर खा गए थे।

भारत रंग महोत्सव के ये दमदार नाटक

दिल्ली में गुलाबी सर्दी पड़ रही है, लेकिन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का माहौल....कहीं स्क्रिप्ट याद की जा रही है तो कहीं पेड़ की छांव में कला...