Friday, January 18, 2019

दिल्ली में कारगिल का गुमनाम हीरो...एक मुलाकात

नीली आंखे, भोला मासूम चेहरा, उतनी ही भोली बातें...इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आइजीएनसीएन) में पहली बार दरद आर्यन पर केंद्रित आर्य उत्सव का आयोजन हो रहा है। लेह लद्दाख के 30 आर्यन इसमें भाग ले रहे हैं। इन्हीं आर्यन मे से एक हैं ताशी नामग्याल। सेना के जवानों की तरह इन्होंने दुश्मनों पर बम-गोले भले ही नहीं बरसाए लेकिन समय रहते सूचना देकर अपना फर्ज निभाया। उनकी यह उपलब्धि कारगिल में जंग लड़ने वाले सेना के जवानों के बराबर नहीं तो कम भी नहीं है। पर, कारगिल का यह हीरो अब भी पहचान को मोहताज है।
 

ताशी परिवार के साथ कारगिल के गरखोन गांव में रहते हैं। ताशी कहते हैं कि अप्रैल 1999 में एक दस हजार रुपये में यॉक खरीदा था।  2 मई को मेरे दिमाग में आया कि यॉक नया खरीदा है, कहीं दोबारा अपने पुराने मालिक के पास तो नहीं चला गया। इसलिए मैं उसे ढूंढने लगा। वहां एक गरखोन नाले के पास बरारु जगह हैं, वहां मैंने देखा कि यॉक के पहाड़ियों की तरफ जाने के निशान थे। मैंने दूरबीन से देखा तो यॉक नहीं दिखा लेकिन करीब पांच-छह लोग बर्फ हटाते नजर आए। मैंने सोचा कि गांव से पहाड़ी की तरफ जाने के पैरों के निशान नहीं हैं तो फिर आखिर वो कौन हैं?

सेना को बताया
गांव में ही पंजाब यूनिट तैनात थी। सेना को पूरा वाकया सुनाया। रिपोर्ट देते ही रात आठ बजे तक पंजाब बटालियन के कई जवान घर पर ही आ गए। सेना ने कहा कि यह सूचना पैरों के नीचे से जमीन खिसकाने वाली है। बकौल ताशी, उस रात खूब बर्फबारी हुई। मुझे ये डर था कि जिसे मैंने देखा है, उनके पैरों के निशान भी अब नहीं दिखेंगे। खैर, सुबह पांच बजे ही बटालियन के जवानों के साथ पेट्रोलिंग के लिए गए। 25 जवान मेरे साथ उसी स्थान पर गए जहां से मैंने दूरबीन के जरिए संदिग्धों को देखा था। सेना के जवानों ने जब देखा तो वो भी हैरान रह गए। कई लोग संदिग्ध गतिविधि करते दिखे। जवानों ने ताशी को गले लगा लिया कि तुमने देश को खतरे में पड़ने से बचा लिया। यदि कुछ दिन और विलंब हो जाता तो पूरा लद्दाख घुसपैठियों के कब्जे में आ जाता।

युद्ध के दौरान सेना के साथ
ताशी कहते हैं कि सेना को बर्फीले रास्तों पर लेकर जाता था। उस समय मैं गाइड के रूप में प्रसिद्ध था। यही नहीं युद्ध जब तक हुआ तब तक मैं ही नहीं पूरा गांव राशन बनाकर पहुंचाता था। ताशी अपने पीठ पर बने निशान की तरफ इशारा करते हुए बताते हैं कि यह निशान आज तक नहीं गए हैं। घर पर गर्मागर्म खाना बनाकर पीठ पर लादकर कई किलोमीटर का सफर तय कर सेना के जवानों तक पहुंचाता था। खाना गर्म होने, ठंड ज्यादा होने की वजह से चमड़े छील जाते थे। फफाेले पड़ जाते थे। सात दिनों तक हमलोगों ने राशन पानी पहुंचाया। बाद में सेना के जवान आए थे। एक वाकया और ताशी बताते हैं कि युद्ध  समाप्त होने पर तीन महीने बाद अचानक एक दिन मेरा यॉक वापस आ गया। उसे खरोंच तक नहीं आयी थी जबकि घुसपैठिए दस से पन्द्रह यॉक को भी मारकर खा गए थे।

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