Thursday, January 24, 2019

सुभाष चंद्र बोस जिंदा थे, फिर क्यों गांधी जी ने उनकी मौत पर अफसोस जता दिया


29 मार्च सन 1942...न्यूयार्क टाइम्स में एक खबर छपी। खबर नेताजी सुभाष चंद्र बोस से संबंधित थी। इस खबर ने भारत में भूचाल ला दिया। खबर थी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के मौत की। अखबार ने हवाई दुर्घटना में नेताजी के मौत की खबर छापी थी। फिर क्या था, भारत में शोक की लहर दौड़ पड़ी। इतिहासकार कपिल कहते हैं कि न्यूयार्य टाइम्स ने फर्जी खबर छापी थी। उस समय नेताजी बर्लिन में थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी सरीखी कई प्रसिद्ध शख्सियतों ने अफसोस भी जाहिर कर दिया था। दरअसल, न्यूयार्य टाइम्स ने फ्रांस के एक रेडियो के हवाले से खबर चलाई। फ्रांस के रेडियो ने आस्ट्रेलिया के अखबार से खबर ली थी जबकि आस्ट्रेलियाई अखबार ने टोक्यो के एक रेडियो पर खबर प्रसारित होने का हवाला दिया था। इस तरह न्यूज ने हजारों मील का सफर तय कर लिया। नेताजी की जिंदगी से जुड़ी ये दिलचस्प कहानी आप लाल किला परिसर में बने बोस संग्रहालय में देख सकते हैं।



 यही नहीं प्रदर्शनी में सन 1941 में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा इंस्ताबुल में अपने जासूसों को भेजा गया पत्र भी प्रदर्शित हैं। जिसमें नेताजी का कत्ल करने का आदेश दिया गया था। बकौल कपिल नेताजी से ब्रिटिश क्यों इतना खौफ खाते थे यह प्रदर्शनी देखने से जाहिर होगा। नेताजी भारतीयों के ब्रिटिश फौज में भर्ती होने के हिमायती थे। इसके पीछे उनका मकसद था कि ऐन वक्त पर भारतीय हमारे लिए उठ खड़े होंगे और अंग्रेज कमजोर हो जाएंगे।
दो मंजिला संग्रहालय भवन में बोस की जिंदगी को तीन हिस्सों में दर्शकों के सामने रखने की कोशिश की गई है। मसलन, भूतल पर बोस के प्रारंभिक जीवन, राष्ट्रवाद के बारे में बताया गया है। इसी तल पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा उपयोग में लायी जाने वाली कुर्सी, तलवार और म्यान समेत आजाद हिंद फौज के जवानों के परिचय पत्र, रुपये और सिक्के भी देखे जा सकते हैं। एक राष्ट्रवादी का जन्म, विद्यालय के दिन, राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी संबंध समेत सन 1914 में कालेज के दिनों में गर्मी की छुट्टियों में एक मित्र के साथ चुपचाप घर से तीर्थ यात्रा के लिए निकलने का प्रसंग भी बकायदा चित्रों एवं स्केच के जरिए दर्शाया गया है। संग्रहालय की पहली मंजिल पर नेताजी के दो बार कांग्रेस अध्यक्ष बनने, कलकत्ता से बर्लिन की यात्रा, जर्मनी प्रवास, आजाद हिंद रेडियो, दक्षिण पूर्व एशिया समेत भारतीय परिदृश्य एवं आजाद हिंद फौज के बारे में विस्तृत जानकारी है। 1929 लाहौर कांग्रेस, 1930-31 सविनय अवज्ञा के वर्ष के दौरान की जानकारी भी देखी जा सकती है। द्वितीय तल पर आजाद हिंद सरकार, आजाद हिंद के गीत, यातनाएं और बोस खो गए शीर्षक से दस्तावेज प्रदर्शित हैं। लाल किले में मुकदमा संबंधी दस्तावेज भी यहां प्रदर्शित हैं। 5 नवंबर 1945 को मुकदमा शुरू हुआ था। यह आठ माह तक चला था। इतिहासकार कपिल कहते हैं कि मुकदमे से पहले 27 जवानों केा मारा गया था। सैकड़ों जवानों को ब्रितानिया हुकूमत का टार्चर सहना पड़ा था।

Monday, January 21, 2019

मंडी हाउस मेट्रो पर मदनपुर खादर की लड़कियों का आना-जाना

गड्ढे वाली सड़के। संकरी गलियां। बिजली के लटकते तारों संग सिविक समस्याओं संग झूलती जिंदगी। जो झांकती हैं बालकनी से कभी सब्जी वाले की आवाज सुनकर तो कभी फेरीवाले की चिल्लाहट सुनकर। बारिश में डूबी सड़के, गलियों में मुंह चिढ़ाती खड़ी स्ट्रीट लाइटें। मदनपुर खादर में सुविधाओं के अभाव में गुजरती जिंदगी में महिलाएं अपने आप को ढाल चुकी है। ये ना केवल इन गलियों की दहलीज लांघती है बल्कि अपने और अपने परिवार का पालन पोषण भी करती है। यहां रहने वाली महिलाओं को रोजमर्रा की जिंदगी में पेश आती मुश्किलों, अभावों समेत चंद खुशनुमा पलों को समेटने की ही कोशिश का नाम है आना-जाना। मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन परिसर में आना जाना की फोटो प्रदर्शनी लगी हुई है। ये फोटो मदनपुर खादर की महिलाओं द्वारा खींचकर, गैर सरकारी संगठन को प्रदान किए गए हैं। दरअसल, प्रदर्शनी यूके के आर्ट एंड हयूमिनिटी रिसर्च काउंसिल द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त है। जिसमें स्कूल आफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर एवं संगठन जागोरी भी शामिल है। प्रदर्शनी इन महिलाओं की रोजमर्रा की जिंदगी का आइना है जो सुबह बसों में धक्के खाती हुई शहर में दाखिल होती हैं और शाम में थकी हारी पहुंचती है।
संगठन ने छह महीने की अवधि में इन महिलाओं द्वारा बनाए गए सहभागिता मानचित्र, क्लिक की गई तस्वीरों, वीडियो एवं वाट्सएप पर किए गए मैसेज, डायरी का उपयोग किया गया है। इन सभी माध्यमों के बहाने महिलाओं की रोजमर्रा की जिंदगी एवं इलाके की वास्तविक स्थिति से रूबरू कराती है। प्रदर्शनी मुख्य रूप से पांच भागों में विभाजित है।


विषय
विषय शीर्षक के तहत सबसे पहले डेट संग्रह संबंधी प्रदर्शनी है। जिसमें बताया गया है कि किस तरह प्रतिभागियों एवं शोधकर्ताओं ने वाटसअप गु्रप बनाया। जिसमें यहां की महिलाओं को शामिल किया गया। ये महिलाएं प्रतिदिन अपडेट करती थी। फोटो, मैसेज और दैनिक डायरी लिखती थी। यही नहीं इन अपडेट के आधार पर संगठन विकिपीडिया एडिटर ए थॉन करवाया। इसमें महिलाओं के द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर मदनपुर खादर पर एक विकी लेख भी तैयार किया गया। इसी तरह सेल्फी वर्कशाप का भी आयोजन किया गया। जिसमें महिलाओं द्वारा ली गई सेल्फी की प्रकृति एवं उसके उद्देश्य पर भी चर्चा हुई। यही नहीं महिलाओं ने एक गाना भी तैयार किया जो उनके रोजमर्रा की जिंदगी के संघर्ष की कहानी बयां करता है।

आना-जाना क्यों?
प्रदर्शनी का नाम मेट्रो यात्रियों के बीच खासा चर्चा का विषय बना रहा। प्रदर्शनी से जुड़े पदाधिकारी बताते हैं कि आना-जाना दरअसल दिल्ली की प्रकृति का द्योतक है। स्वतंत्रता के बाद से ही दिल्ली में उद्योग धंधे, कारखाने की बढ़ोतरी हुई। लिहाजा, काम धंधे की तलाश में पड़ोसी राज्यों के गांवों से लाखों लोग दिल्ली आए। परिणामस्वरूप झोपड़पट्टी, बस्तियों की तादात में इजाफा हो गया। इसी तरह जाना की परिभाषा कुछ यूं समझी जा सकती है। जब बस्तियों की संख्या बढ़ी तो मदनपुर जैसी रिसेटलमेंट कालोनियों में लोगों को शिफ्ट किया गया। खादर में रहने वाले पं बंगाल, यूपी, बिहार, राजस्थान के निवासी है जो काम धंधे की तलाश में दिल्ली आए थे। वे मुख्य रूप से कम वेतन वाली नौकरियां मसलन चपरासी, ड्राइवर, घरेलू कामगार, सुरक्षा गार्ड, रैग पिकर, विक्रेता, औद्योगिक इलाकों में श्रमिक हैं।

होम-फोन और सिटी
स्मार्ट फोन ने घर घर दस्तक दे दी है। लोगों की जिंदगी जेब में रखे फोन ने बदल दी है। मदनपुर खादर में रहने वालों की जिंदगी पर भी इसका असर पड़ा है लेकिन अभी भी यहां नेटवर्क की समस्या बनी हुई है। इसे प्रदर्शनी में बड़े ही खूबसूरत ढंग से दर्शाया गया है। जबकि शहर शीर्षक के अंतर्गत यौन उत्पीडऩ के मसलों पर महिलाओं ने चुप्पी तोड़ी है। प्रदर्शनी में चित्रों, कैरिकेचर के जरिए यह बताया गया है कि महिलाएं इन खतरों से अलग अलग तरीकों से निपटती है। जैसे कभी पुलिस हेल्पलाइन पर कॉल करके तो कभी दोस्तों के साथ रहकर। कभी अकेले होने पर नजर अंदाज करना या मदद के लिए कॉल करने के बहाने मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना शामिल है। सेफ्टी पिन मोबाइल एप के जरिए सेफ्टी सर्वे का चित्र भी प्रदर्शनी में शामिल है। जहां सेफ और अनसेफ जगहें चिन्हित की गई है। इसमें एटीएम मार्केट, डी ब्लॉक, गर्वमेंट टॉयलेट, चौराहा पार्क, गर्वमेंट स्कूल एरिया जैसी कई अन्य जगहों को महिलाओं ने अनसेफ बताया है।

खादर की लड़कियां
खादर की लड़कियां तमाम असुविधाओं के बावजूद अपने सपनों को कैद नहीं रखती है। अपने हौसले की उड़ान को वो और उंचा करने में जुटी है। वो मेहनत से सफलता के पायदान चढ़ रही है। यह खादर की लड़कियां शीर्षक से भी जाहिर होता है। जिसमें लड़कियां अपनी भावनाओं का इजहार कविता से करती है। एक लड़की ने लिखा कि-
हम खादर की लड़कियां
शहर में रहती हैं दिन रात
हम खादर की लड़कियां
सुनो हमारी बात।।
वहीं एक लड़की ने लिखा है कि यह शहर सिर्फ चंद लोगों का नहीं है। यह शहर हमारी मेहनत से सींचा गया है। यह हम सब का शहर है। लिखती है-
मेरे साथ कहो एक बार
यह शहर हमारा आपका
नहीं किसी के बाप का।।
जबकि एक अन्य युवती ने बदहाल व्यवस्था पर चोट करती चंद पक्तियां लिखी।
नदी तो दूर, नाली भी नहीं
पहाड़ तो दूर, कूड़े के ढेर मिलेंगे
रास्तों में हो लाइट
ना हो कोई फाइट।।
लेकिन इन लड़कियों की हिम्मत देखने लायक है। इसका इजहार इनकी कविताओं से ही होता है। एक युवती लिखती है कि -
मैं हूं अलर्ट
मैं हूं होशियार
मेरी हिम्मत है बेमिसाल।।
जबकि एक लड़की ने अपनी व्यथा कुछ इस कदर बयां किया--
क्यों समाज ने मुझको दबाया है
बिना खुद को सुधारे
मुझे घर में बिठाया है।।

वाट्सएप डायरी
प्रदर्शनी में वाट्सएप डायरी उत्सुकता भरी है। दरअसल, वाटसएप पर महिलाओं द्वारा शेयर की गई बारिश संबंधी तस्वीरों को इस श्रेणी के तहत प्रदर्शित किया गया है। इसमें बारिश के बाद जलमग्न सड़कों को दर्शाया गया है। किस तरह लोगों को परेशानी होती है, बच्चे इनमें खेलते हैं। गाडिय़ां आधी डूब जाती है एवं नालियों का पानी कई जगह घरों में दाखिल होने लगता है।

आयोजन-आना-जाना
स्थल-मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन

Friday, January 18, 2019

दिल्ली में कारगिल का गुमनाम हीरो...एक मुलाकात

नीली आंखे, भोला मासूम चेहरा, उतनी ही भोली बातें...इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आइजीएनसीएन) में पहली बार दरद आर्यन पर केंद्रित आर्य उत्सव का आयोजन हो रहा है। लेह लद्दाख के 30 आर्यन इसमें भाग ले रहे हैं। इन्हीं आर्यन मे से एक हैं ताशी नामग्याल। सेना के जवानों की तरह इन्होंने दुश्मनों पर बम-गोले भले ही नहीं बरसाए लेकिन समय रहते सूचना देकर अपना फर्ज निभाया। उनकी यह उपलब्धि कारगिल में जंग लड़ने वाले सेना के जवानों के बराबर नहीं तो कम भी नहीं है। पर, कारगिल का यह हीरो अब भी पहचान को मोहताज है।
 

ताशी परिवार के साथ कारगिल के गरखोन गांव में रहते हैं। ताशी कहते हैं कि अप्रैल 1999 में एक दस हजार रुपये में यॉक खरीदा था।  2 मई को मेरे दिमाग में आया कि यॉक नया खरीदा है, कहीं दोबारा अपने पुराने मालिक के पास तो नहीं चला गया। इसलिए मैं उसे ढूंढने लगा। वहां एक गरखोन नाले के पास बरारु जगह हैं, वहां मैंने देखा कि यॉक के पहाड़ियों की तरफ जाने के निशान थे। मैंने दूरबीन से देखा तो यॉक नहीं दिखा लेकिन करीब पांच-छह लोग बर्फ हटाते नजर आए। मैंने सोचा कि गांव से पहाड़ी की तरफ जाने के पैरों के निशान नहीं हैं तो फिर आखिर वो कौन हैं?

सेना को बताया
गांव में ही पंजाब यूनिट तैनात थी। सेना को पूरा वाकया सुनाया। रिपोर्ट देते ही रात आठ बजे तक पंजाब बटालियन के कई जवान घर पर ही आ गए। सेना ने कहा कि यह सूचना पैरों के नीचे से जमीन खिसकाने वाली है। बकौल ताशी, उस रात खूब बर्फबारी हुई। मुझे ये डर था कि जिसे मैंने देखा है, उनके पैरों के निशान भी अब नहीं दिखेंगे। खैर, सुबह पांच बजे ही बटालियन के जवानों के साथ पेट्रोलिंग के लिए गए। 25 जवान मेरे साथ उसी स्थान पर गए जहां से मैंने दूरबीन के जरिए संदिग्धों को देखा था। सेना के जवानों ने जब देखा तो वो भी हैरान रह गए। कई लोग संदिग्ध गतिविधि करते दिखे। जवानों ने ताशी को गले लगा लिया कि तुमने देश को खतरे में पड़ने से बचा लिया। यदि कुछ दिन और विलंब हो जाता तो पूरा लद्दाख घुसपैठियों के कब्जे में आ जाता।

युद्ध के दौरान सेना के साथ
ताशी कहते हैं कि सेना को बर्फीले रास्तों पर लेकर जाता था। उस समय मैं गाइड के रूप में प्रसिद्ध था। यही नहीं युद्ध जब तक हुआ तब तक मैं ही नहीं पूरा गांव राशन बनाकर पहुंचाता था। ताशी अपने पीठ पर बने निशान की तरफ इशारा करते हुए बताते हैं कि यह निशान आज तक नहीं गए हैं। घर पर गर्मागर्म खाना बनाकर पीठ पर लादकर कई किलोमीटर का सफर तय कर सेना के जवानों तक पहुंचाता था। खाना गर्म होने, ठंड ज्यादा होने की वजह से चमड़े छील जाते थे। फफाेले पड़ जाते थे। सात दिनों तक हमलोगों ने राशन पानी पहुंचाया। बाद में सेना के जवान आए थे। एक वाकया और ताशी बताते हैं कि युद्ध  समाप्त होने पर तीन महीने बाद अचानक एक दिन मेरा यॉक वापस आ गया। उसे खरोंच तक नहीं आयी थी जबकि घुसपैठिए दस से पन्द्रह यॉक को भी मारकर खा गए थे।

भारत रंग महोत्सव के ये दमदार नाटक

दिल्ली में गुलाबी सर्दी पड़ रही है, लेकिन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का माहौल....कहीं स्क्रिप्ट याद की जा रही है तो कहीं पेड़ की छांव में कला...